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अरूंधति | मदन मोहन' मैत्रेय


यह कहानी विचारों के परस्पर टकराव की कहानी है। इसमें भिन्न विचारधारा में परिस्थियों के अनुसार किस तरह से बदलाव होता है, उसको स्पष्ट करने की कोशिश की गई है। वैसे' यह प्रेम कहानी है।


अरुंधति, लंबा इकहरा शरीर, उस पर गौर वर्ण लिए सुंदर आकर्षक शरीर सौष्ठव, उठी हुई नाक पर नीली आँखों की बनावट, जो कटार लिए हुए था। गोल चेहरे पर लगा हुआ चश्मा और सलीके से पहनी हुई साड़ी, वह अप्सरा सी सुंदर प्रतीत हो रही थी। हां, उसे अप्सरा सी सुंदर कहना ही अति उपयुक्त होगा, क्योंकि' कोई भी उसे देखे, उसपर से अपनी नजर जल्दी हटा नहीं पाता था।


किन्तु" यह सुंदरता तो उसके शरीर का बाहरी आवरण था। वास्तव में वो अकड़ू स्वभाव की थी। उसके बातचीत करने का सलीका अति ही कठोर था और बिना बात के भी किसी के साथ झगड़ पड़ने की उसकी रवैया, बहुत ही भयावह कहा जा सकता था। वैसे' उसमें ये तमाम दुर्गुण ऐसे ही तो नहीं आए थे। बाईस- तेईस वर्ष की अरुंधति, वैसे थी तो काँलेज की छात्रा, किन्तु" अपने अथक प्रयासों से महिला आयोग की सचिव बन बैठी थी। बस' यूं समझ लीजिये कि" उसमें ये तमाम गुण उसके पद-प्रतिष्ठा और संस्था गत प्रभाव के कारण आ गए थे। वह एक तरह से बात-बात में शंका प्रगट करने लग गई थी और उनके मन में छिपी हुई शंकाओं ने धीरे-धीरे उसके स्वभाव को ही बदल दिया था।

साथ ही महिला आयोग का सचिव होने के नाते वह एक प्रकार की कुंठा से भी ग्रसित हो गई थी। जैसा कि" अमूमन होता है, पुरुष समाज को सिर्फ शक की निगाहों से देखा जाता है। बस' उसका रवैया इस से बिल्कुल अलग नहीं था। वह नारियों के हित के लिए तमाम तरह के आयोजनों को संचालित करती थी और उसमें मुखर होकर भाग लेती थी। फिर तो' पुरुष के हिंसक स्वरूप का चित्रण और इसपर लंबे-लंबे वक्तव्य। जैसे' लगता था कि" उसने ध्येय ही बना लिया हो' किसी भी तरह से, येन-केन प्रकारेन पुरुष के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगा दे। अपने इस तरह के प्रयास करने के स्वरूप वह और भी बदलती जा रही थी। वह अब तो पुरुषों के छाया से भी दूरी बनाकर रहने लगी थी। इतना ही नहीं, उसके द्वारा लिखे आर्टिकल, जो देश के प्रमुख समाचार पत्रों में भी छपते रहते थे, इसके कारण वह हमेशा सुर्खियों में भी बनी रहती थी।


वैसे, उसके परिवार में ऐसा परिस्थिति बिल्कुल भी नहीं था, जिससे लगे कि" पुरुषों का वर्चस्व हो और स्त्रियों को दबाया जाता हो। उसके पिता, जो रेलवे में सीनियर आँफिसर थे, उसकी मां अनुपमा देवी से असीम स्नेह रखते थे और उसकी मां अनुपमा देवी गृह कार्य का संपादन करने सुख की अनुभूति करती थी, जिस कारण से उनका दांपत्य जीवन सकुशल रुप से चल रहा था। साथ ही, उसके दो भाई प्रियांश और अरुण, जो मृदु स्वभाव के थे और अरुंधति से अत्यधिक स्नेह रखते थे और उसके सपनों को पूरा करने के लिए भरपूर सहयोग भी करते थे। अब ऐसा भी नहीं था कि" अरुंधति भी पुरुष होने के कारण अपने परिवार के सदस्यों के प्रति द्वेष रखती थी। जी, ऐसा बिल्कुल भी नहीं था, वह तो अपने भाई और पिता से अत्यधिक स्नेह रखती थी और उनको अपना आदर्श मानती थी। परंतु....बस उन तक ही, इसके बाद की दुनिया के प्रति वह एक धारणा कायम कर चुकी थी कि" पुरुष लोलुप, कामी और क्रुअल स्वभाव के होते है। जिनकी मंशा नारियों का शोषण और उसपर अपना वर्चस्व स्थापित करना होता है। इसके लिए वे सदैव प्रयत्न शील रहते है। बस' उसे पुरुष के इसी पुरुषत्व स्वभाव से घृणा था और बस' इस पुरुष प्रधान व्यवस्था को जड़ से मिटा देना चाहती थी।


परंतु...विचार और स्वभाव कभी भी स्थाई नहीं रह पाता। जीवन में कभी-कभी ऐसी घटना घट जाती है, जो मानव मन में ग्रसित धारणा को सिरे से ही खारिज कर देता है। उसे सोचने पर मजबूर कर देता है कि" उसने जो सोचा, दुनिया ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। वह जो विचार किए रहता है, बुराई का प्र